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कविता

गंगा घाट

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प्रीति शर्मा "असीम" | June 20, 2020 02:23 PM

गंगा घाट

युगों- युगों से यात्रा मेरी,
तेरे साथ- साथ चलती रही।

जन्मों -जन्मों से गुजर कर ,
तुम पर ही तो आ के थमती रही।

जिंदगी के एक घाट से,
मौत के,
दूसरे घाट तक का सफर।

युगों- युगों से ना बदला है।
ना बदलेगा ।
जन्मों- जन्मों का यह सफर।

देखता हूँ....... तेरे घाट पर,

जीवन का अनूठा ही फन।

जीवन के ,
एक घाट पर रंगे सपने है।
दूसरे घाट पर खुद को,
सफेद धुंध को ओढ़े हुए अपने हैं।

कितना भी ऊंचा उठ जाएं ,
खुद को धरा पर ही पाते हैं।

सब अपने -सब सपने ,
उस घाट पर रह जाते हैं।

फिर इस घाट से,
उस घाट का,
सफर कब खत्म हो गया ।

पिछले घाट पर,
छूटा सपनों का महल ।
अंतिम स्नान से ही धुल गया।

रिश्ते -नाते ,प्यार ,कड़वाहट,
यादें -बातें सब दिन ।
आग में हवन हो जाते हैं।

दूसरे घाट पर,
राख के ढेर के बादल उड़कर।

गंगा तेरी ही गोद में शरण पाते हैं।

तेरे ही प्रवाह में ,
प्रवाहित हो जाते हैं ।

फिर उसी से ,
नवजीवन का प्रवाह पाते हैं।

युगों- युगों से तुम्हारे घाट ,
जन्मों-जन्मों के ,
जीवन मरण की ,
अमृत कथा सुनाते हैं।

 

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