कविता
ग़ज़ल (मां)
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विनोद निराश | July 07, 2020 07:09 PM
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ग़ज़ल ( माँ )
है कदमो में जन्नत माँ के, करीब आ कर तो देखो ,
कभी ये हँसीं ख़याल जिहन, में ला कर तो देखो।
बा-खुदा उसे कभी दु:खी न, करना तुम मेरे अज़ीज़ों,
यक़ीनन उस पाकीज़ा को, दिल में बसा कर तो देखो।
ता-उम्र अहसान तले दब जाएगा , उसके ये वक़्त भी ,
दुनिया का कोई सख्श, फ़र्ज़-ए-माँ अदा कर तो देखो।
दरख्त से गर शाख जुदा हो जाए, कभी जाने-अन्जाने,
उस शाख-ए-दरख्त पे कोई, फल ऊगा कर तो देखो।
राह-ए-ज़िंदगी में सब कुछ , हांसिल हो सकता है मगर ,
अपनी ज़िंदगी में खोई हुई माँ, फिर पा कर तो देखो।
खो के माँ को अपनी ये , अहसास हुआ मुझे निराश ,
मेरी ज़िंदगी का वो बचपन, कोई ला कर तो देखो।
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