है नारी अपने मन से सोच
अंध विश्वास की बेड़ियाँ तोड़
कुछ तो अपने मन से सोच
जिंदा बेटी बूँदों में भीगे
आँचल में मूर्ति को ढके
मानसिक गुलामी की बेड़ी तोड़
कुछ तो अपने मन से सोच
मंदिर में है दूध चढ़ावे
बाहर भूखे को दुत्कारें
आस्तिकता की अंधी दौड़
कुछ तो अपने मन से सोच
जो कुछहैं उसका दिया
उसको तू क्या चढ़ावे
धड़कता दिल बारिश में भीगे
मूर्ति ढक तू चैन पावे
अब तो अपने मन को टटोल
कुछ तो अपने मन से सोच
भूखी जान हैं बिलरावे
मूरत को तू भोग लगावें
ज्ञान चक्षु अपने भी खोल
कुछ तो अपने मन से सोच
माना तेरा जीवन भी नारी
बेड़ियों से ही बंधा हैं
पर तनया की खातिर अब
कुछ बेड़ियां अपनी भी तोड़
है नारी-कुछ तो अपने मन से सोच ।
कवयित्री गरिमा राकेश गौत्तम
कोटा राजस्थान