मनोदशा
मनोदशा कुछ ऐसी है कैसे ,पल में विवरण कर दूं,
चालीस वर्षों की पट कथा का कैसे ,पल में चित्रण कर दूँ।
विरह वेदना के पाश में बंधा , कुंठित मेरा मन है ,
विरहाग्नि में झुलस रहा , मेरा कोमल तन है ।
यौवन के चढ़ते सूरज पर , मेरा सिंदूर दान हुआ,
यौवन के ढलते सूरज पर , सूना मेरा माँग हुआ।
ये कैसा चक्र है जीवन का ,ये कैसी लीला तेरी है,
हर साँसों पर कब्जा तेरा , एक अनबुझ पहेली है।
पल पल भ्रम में जीता मानव , भ्रम में ही मर जाता है,
वेद पुराणों में यह गति , काल चक्र कहलाता है।
न प्यार तुम्हारा है बन्दे , न बन्धो नफरत के पाश में,
इस बंधन से बंध कर इन्सा , जीता है किस आस में।
ये चंद पलों के मेला है फिर , मानव यहां अकेला है,
जन्म मृत्य ने धरा पर हमसे , आँख मिचौली खेला है।
शतरंज के विसात पर बैठा , खिलाड़ी एक अकेला है,
हमे माया में उलझा कर , उसने खेल अकेला खेला है।