मुंबई,
अनवरत तेज अकड़ में रहता हूं ,
रोशनी की हर शय को टटोलता हूं ,
अपने ही दंभ में बूंद बूंद टपकता हूं,
शाम ढले फिर ढलता हूं ,
निशा की गोद में छुप कर सुकून से सोता हूं
डूबती सी सांसों से भोर की आगोश को तड़पता हूं ,
गर चांद ना छुपे तो अपनी ही धुंध में जाने कब का मरता था मै