परम्पराएं:-----
जैसे जैसे समय आगे बढ़ता जा रहा है पुरानी कई परम्पराएं भी पीछे छूटती जा रही हैं। ऐसी ही एक परम्परा है मकरसंक्रांति के समय दान करने की।
पहले इस दिन दान का काफी महत्व हुआ करता था। लोग अपनी सामर्थ्य के अनुसार कम या ज्यादा कुछ न कुछ दान जरूर किया करते।
हर साल जब भी मकरसंक्रांति आता तो मेरी सास अपने ससुराल की बातें और कहानियाँ हमलोग को जरूर सुनाती थी। मेरी सास बताती थी कि उनकी सास ( मेरी दादी सास) एक बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति की महिला थी और उनका ज्यादा वक्त पूजा पाठ में बीतता...ससुर ( मेरे दादा ससुर) चंपारण के बगहा गाँव मे जमींदार थे साथ ही साथ वो एक डॉक्टर भी थे। भरा पूरा परिवार था और खेत खलिहान की कमी न थी और चावल की अच्छी उपज होती थी।
मकरसंक्रांति के दिन घर में खूब चहलपहल और रौनक होती। चूड़ा दही के साथ घर के चूल्हे की आग में पकाया बैगन और आलू का भरता, घर का बना सेम, गाजर मूली और मिर्ची का अचार और न जानें कितनी ही चीजें रहती।
खिचड़ी वहाँ रात को बनती और खिचड़ी के चार यार चोखा , पापड़, घी, अचार के साथ साथ छोटे छोटे आलुओं का एकदम देसी चटक तीता आलू दम भी बनता।
लेकिन जो सबसे खास बात होती वो ये की मेरे दादा ससुर उस दिन बोरी के बोरी चावल दान किया करते। मेरी सास बताती थी कि कैसे मकरसंक्रांति के दिन सुबह से ही ओसारे पर ग़रीबों की लंबी लाइन लग जाती। बरामदे में चावल की बोरिया रखवा दी जाती। मेरे दादा ससुर कुर्सी लगा कर बैठते और सबको अपने हाँथ से चावल उठाकर दिया करते। बगल में सर पर पल्ला डाले मचिया लगाकर बैठती थी मेरी दादी सास। सबकुछ उनकी देखरेख में होता क्या मजाल जो कोई भूल चूक हो जाये या कोई खाली हाँथ वापस लौट जाए। मेरी सास कहती थी कि उनके ससुर जी की हथेलियाँ इतनी बड़ी थी कि एक बार में करीब आधा किलो चावल उनकी अंजुरी में आ जाता।मुझे ये सारी कहानियाँ सुनना बड़ा अच्छा लगता। ये बातें मुझे गांव के परिवेश में ले जाती और आँखों के आगे एक चित्र सा खींच देती।समय कुछ और आगे बढ़ा, लेकिन शहर में भी मेरी सास नें कमोबेश इस परम्परा को जीवित रखा। मुझे याद है कैसे मकरसंक्रांति की सुबह मेरी सास डायनिंग टेबल पर सबके नाम से चावल, दाल और कुछ रुपये अलग अलग निकाल कर रख देती थी। हमसब नहा कर आते और पहले अपने हिस्से के अनाज को छूते , फिर गुड़ और तिल से मुँह मीठा करते। बाद में छुए हुए उस अनाज को ग़रीबों को दान कर दिया जाता। जबतक मेरी सास जीवित थी उन्होंने इस परम्परा को निभाया।आज मेरी सास नहीं रही लेकिन मेरी कोशिश यही रहती है कि मैं भी इस दान की परम्परा को निभाऊं। जरूरतमंदों को कुछ न कुछ जरूर दान करूँ।खुशियाँ बाटनें से बढ़ती हैं और देनें से बड़ी खुशी और कुछ नहीं होती और ये परम्पराएं ही तो हैं जो हमें अपनी मिट्टी से जोड़े रखती हैं...इन्हीं बातों के साथ विदा लेती हूँ... आप सबको मकरसंक्रांति की ढेरों बधाईयाँ और शुभकामनाएं...रीना सिन्हा (स्वरचित)
जमशेदपुर, झारखंड