जब बजती छुट्टी की घंटी उछल उछल कर दौड़ भाग कर
बच्चे हो जाते नौ दो ग्यारह
कूद कूद कर उछल उछल कर मस्ती करते
बच्चे मन के होते सच्चे
अपनी ही दुनिया में खोए रहते तोतली बोली बोल बोल कर सबके मन को लुभा लेते हैं
बच्चे होते बड़े सयाने अपनी बात मनवाने के लिए
मासूम सा चेहरा बनाते हैं
फिर रो रो कर अपनी बात मनवा ही लेते
नहीं किसी से भेदभाव नहीं किसी से छल कपट
खेलना कूदना हंसना पढ़ना लिखना यही उनका काम है
प्यार से दो मीठे बोल बोल दो लग जाते उनके गले
टीचर उनके जान से प्यारी
जो बातें बोल दे वही पत्थर की लकीर
काश हम भी बच्चे होते
फिर से वही मस्ती करते
ना कोई गम ना फिकर
खुले आसमान में दौड़ लगाते।