इच्छाओं के जाल में फॅंसकर,
मानव मन खो जाता है।
इक पूरी हुई,फिर दूजी उठी,
इच्छा का छेद न भर पाता है।
मानव मकड़जाल में फॅंसकर,
जीवन भर छटपटाता है।
चाहकर भी जाल को न काटे,
उलझता ही चला जाता है।
कशमकश में उलझा जीवन,
सुकून उनका छिन जाता है।
अशांति से भरा मन हरदम ही,
तन भी कभी शांति न पाता है।
इच्छाओं को पूरी करने खातिर,
मानव पथभ्रष्ट हो जाता है।
झूठ,दंभ,पाखंड अपनाकर वो,
पहन मुखौटा दौड़ता रहता है।
मृगतृष्णा की खातिर सारा जग,
यहां-वहां व्यर्थ ही डोल रहा है।
कुछ पल ठहर, सोच अंतस में,
क्यों आया था,क्या कर रहा है।