चाहत के धागे
इच्छाएँ कभी समाप्त नहीं होती। एक पूरी होती है तो दूसरी जन्म ले लेती है। जन्म से लेकर मृत्यु तक ये चाहते बनी रहती हैं। इंसान ही नहीं जीव मात्र इन चाहतों के धागों से बंधा हुआ है। धरती पर आते ही उसकी अपनी जरूरतें शुरू हो जाती है। उसे भूख लगती है, प्यास लगती है, मौसम का प्रभाव भी उस पर पड़ता है। स्वाभाविक है जिन्दा रहने के लिए चाहतों को जिन्दा रखना है। रोटी, कपड़ा और मकान, इन मौलिक चाहतों का तो जन्मसिद्ध अधिकार है। यदि चाहत न हो जिन्दगी थम जायेगी। ये चाहत ही तो है कि हमें धरती से अंतरिक्ष तक पहुँचा सकती है। नयी-नयी इच्छाओं का जन्म लेना गलत नहीं है। यह तो जिन्दगी को खुशगवार बना देती है। जरूरत है इन चाहतों को साकारात्मक होना।
अखबार में नाम एक आतंकी का भी आता है और एक राष्ट के सिपाही का भी। चाहत जीवन में गति प्रदान करती है, लेकिन यही चाहत जब सुरसा के मुख के समान दुगुना होता जाए और लालच, अहंकार और सोहरत की जामा पहन ले तो स्वतः पतन की कगार पर आ खड़ी हो जाती है। जब खुबसूरत चाहतों को जीवन के धागे में पिरोयेंगें तो यह एक सुमिरनी माला तैयार हो सकती है। चाहतों का दायरा व्यष्टि न होकर जब वह समष्टि बन जाता है तो मानव जन्म ही सफल हो जाता है।
हाँ,ये सही है कि चाहतों का अंत नहीं है और पूरी जिन्दगी उसे पूरी करने में ही बीत जाती है, तो क्यों न हम सिर्फ इतनी ही चाहत रखें जिससे
"मैं भी भूखा न रहूँ, साधु भूखे न जाए।"
कबीरदास जी ने बरसों पहले इस मूल मंत्र को कह गए। लेकिन आज इस चाहत की डोर हनुमान जी की पूँछ की तरह बढ़ती जा रही है। हनुमान जी की पूँछ कल्याणकारी चाहत लेकर बढ़ती रहती है। यदि मानव भी अपनी चाहत के धागे को मजबूत बनाना चाहता है तो उसे भी दायरा बढ़ाना होगा। चाहत के धागे इतने मजबूत हो कि सुमिरनी (पूजा की माला) के साथ-साथ गले का श्रृंगार बन जाए।