चार हथेलियां
पूरे बीस साल बाद पुनःएक मिलन आंखें डबडबाई हुई,जीर्ण काया ,हाथ खाली पर दिल प्यार और सम्मान से लबरेज। वृद्धा- आश्रम में इनका मिलना और इन चार हथेलियों को एकदुसरे से पकड़ कर से यूं बैठे देख सब आश्चर्यचकित थे ।
जिंदगी लंबी होती है ।इसमें कई मोड़ आते हैं बस परिवार और समाज के साथ रहते और नए रिश्ते बनाते , बीच के अंतराल इसी दस, बीस साल के बाद यादों के सहारे चलते ,बुनते और गुजरते रहते हैं। कहते हैं ना!' दुनिया गोल है' बस इसी तरह....
जानकी और रंभा बचपन की सहेलियां अड़ोस पड़ोस की एक दूसरे के आंगन की रौनक एक दूसरे के मां को मां ही कहना था। शिक्षा दीक्षा सारी एक साथ ही की। इन दोनों की शादियां भी आगे पीछे एक साथ ही हो गई दोनों अपने अपने घर की रौनक बन अपने -अपने परिवार में मशगूल हो गईं।
जानकी और रंभा ..बस एक ही अंतर था जानकी का परिवार रंभा का परिवार से समृद्ध था। तंगी के दिनों में जानकी के यहां से रंभा को सहायता होती रहती थी इन्हीं सब प्यारे प्यारे
रिश्तो को निभाते हुए दोनों लड़कियां बड़ी हुई शादी के बाद दोनों अपने-अपने गृहस्ती में रम गई। शुरुआत में इनकी बातें होती फिर अपने अपनी जिम्मेदारियों को निभाते - निभाते साल गुजरते चले गए, ब कुछ दिनों के बाद 15 साल बाद दोनों का एक ही शहर में रहना हुआ। जानकी के माता पिता का निधन हो गया। जानकी के बेरोजगार भाइयों ने संपत्ति का बंटवारा कर लिया जानकी का मायका अब पहले जैसा नहीं रहा। इधर रंभा के दोनों भाई अच्छी नौकरी में आ गए पुराने घर को आलीशान घर में तब्दील कर लिया किल्लत के वह दिन यहां शिक्षा पर निखर गया ।इधर रंभा को पता चला कि जानकी के पति की नौकरी चली गई है हालात अभी तंग है ।रम्भा जानकी से मिलने की इच्छा जाहिर की जानकी हमेशा छोटी-छोटी बातों से टाल जाती थी ,पर अचानक एक दिन रंभा अपने प्रिय सहेली जानकी के यहां बिना कोई खबर के पहुंच गई। रंभा को देख जानकी अत्यंत खुश हुई कहां बैठाउं कहां उठाऊं वाली हालत। दोनों सहेलियां गले मिली उसी गर्मजोशी से। घंटों दोनों ने बातें की ।बातों ही बातों में जानकी ने कहा देखो ना महंगाई इतनी बढ़ गई है बच्चों का ट्यूशन मैं खुद घर में ही देती हूं इनकी नई जॉब लग जाएगी तो मैं फिर से ट्यूशन ज्वाइन करवा दूंगी । इधर उधर की ढेर सारी बातें की दोनों ने।
रंभा को देखकर जानकी बहुत खुश थी। रंभा के जाने के बाद जानकी घर को समेट रही थी तो उसे एक लिफाफा मिला उसने खोला तो उसमें एक प्यारी सी चिट्ठी थी। चिट्ठी को पढ़कर जानकी की आंखे भीग गई, रंभा ने लिखा था...
मेरी प्यारी सखी जानकी 'मैं यह छोटा सा एक लिफाफा दे रही हूं ।एक मां की तरफ से अपने बच्चों को। यह कुछ पैसे बच्चों के लिए इसे तुम चुपचाप रख लेना मेरे बचपन के और किल्लत के दिनों की तुम साक्षी हो ..!' जानकी को थोड़ा गुस्सा आया वह सोचने लगी मैं इसे स्वीकारूं या इसे लौटा दूं? परंतु उसे याद आया जानकी कैसे अपने पुराने कपड़े, जूते मां के कहने पर, अपनी किताबें रंभा को देती थी और रंभा सहज हो उसे स्वीकारति थी। कभी उसने कुछ ना कहा ।फिर मैं आज क्यों इसे ना स्वीकारूँ,....?
जानकी ने उसे सहेज कर रख दिया। जिंदगी फिर अपने उतार-चढ़ाव के बीच चलने लगी रंभा के पति का तबादला हो गया ।वह दूसरे शहर चली गई। अब जानकी रंभा से मिलना चाहती थी। उसने रंभा से मिलने की इच्छा जाहिर की पाँच साल गुजर गए थे आज पुनः दोनों सहेलियों का मिलन हुआ परिस्थितियां अच्छी हो गई जानकी भी खुश और रंभा भी खुश। आज जानकी ने एक बंद लिफाफा रंभा के पर्स में डाला और उसके हथेली को धीरे से दबाया आंखों से दोनों
बातें की। रंभा को पता था जानकी स्वाभिमानी है हम दोनों की तो यही एक
और खूबियां थी। आज दोनों खुश थी रंभा ने उसे सहेज लिया। आज जानकी की लिखी बातें रंभा पढ़ रही थी जानकी ने लिखा था.. मेरी प्यारी सखी रंभा
यह पैसे मेरे बहुत काम आए पैसे रुपए तो हमेशा कर्ज देने और लेने के काम आते हैं हमारी मौन हृदय की दोस्ती बस
बस इसी तरह आदान-प्रदान होती रहें यह हमारी सबसे बहुमूल्य निधि है इसे स्वीकार कर तुम रख लेना।" रंभा ने लिफाफे को हृदय से लगाया दो बूंद आंसू जानकी के चिट्ठी पर गिर गए।
यह तो रंभा और जानकी की बचपन और जवानी की कहानी ..... आज अपने अपने फर्ज को पूरे करने के बाद पतिविहीन यह माताएं बच्चों के सुख के लिए वृद्धाश्रम आ गई हैं, और वही चार हथेलियां दिल से अपने आंसुओं के संग बातें कर रही थी होंठ तो बिल्कुल चुप है.....
सुनीता श्रीवास्तव' जागृति' । रांची। झारखंड