कोई नहीं धरा पर ऐसा है,जो जीवन में मुक्ति पाया।
जीवन रहते नहीं ये संभव,अंतिम क्षण मुक्ति पाया।।
जीवन भर ये मानव अपना,धर्म-कर्म सभी निभाया।
एक जिम्मेदारी पूर्ण हुई तो,दूजा भी सर पर आया।।
जन्मा मानव तन में है शिशु,लिए बुढापे तक आया।
अपने हर वय में इंसा कुछ,न कुछ करते ही आया।।
कभी पढ़ाई,कभी नौकरी,कभी शादी ब्याह रचाया।
बच्चे पाला,उन्हें पढ़ाया, उनका भी घर है बसाया।।
सामाजिक कर्तव्य से मुक्त हुए,आध्यात्मिक आया।
धर्म एवं आध्यात्म में थोड़ा,अपनी रुचि है बढ़ाया।।
इधर उम्र बढ़े,उधर नाती-पोते,का समय भी आया।
मन बच्चों में है लगा रहे,कोई भाग न इससे पाया।।
जीवन रहते नाती-पोतों संग,खेला है उन्हें खेलाया।
जितना संभव था जीवन में, हर एक बोझ उठाया।।
कोई इंसान कभी जीवन में,कहाँ मुक्त वो हो पाया।
एक जिम्मेदारी से मुक्त हुए,तो अगली पे है धाया।।
मानव जीवन ये ऐसा ही है,वह नहीं मुक्त हो पाया।
मोह माया के जाल में फँस,हरदम ये दौड़ लगाया।।
कोई नहीं धरा पर ऐसा है,जीवन रहते मुक्ति पाया।
साँसें रहते नहीं है संभव,अंतिम क्षण मुक्ति पाया।।