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कविता

कुदरत और आदमी में छिड़ी है जंग

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ब्यूरो हिमालयन अपडेट | January 22, 2023 04:33 PM
 
 

कुदरत और आदमी में छिड़ी है जंग

आदमी के पैंतरे देख कुदरत भी है दंग
सबक बहुत सिखाया आदमी को कुदरत ने
बदल नहीं रहे फिर भी उसके रंग ढंग
 
आदमी कहता मैं बड़ा चांद पर मैं पहुंच गया
मेरी तरक्की में बेबजह तू क्यों टांग अड़ाती है
मैंने जब भी धरती से छेड़छाड़ की कोशिश की
तू जलजला और बाढ़ बन कर क्यों आ जाती है
 
मुझे पैसा चाहिए नहीं मिटती है मेरी पैसे की भूख
पैसे के लिए मैं तेरी तो क्या रिश्तों की परवाह नहीं करता
मेरे पास दिमाग है मैं जो चाहे कर सकता हूँ
तू जो चाहे वह कर ले मैं तुझसे बिल्कुल नहीं डरता
 
बड़े शहर मैंने बना दिये बहुमंजिली बिल्डिंगे खड़ी कर दी
तू रोती रही चिल्लाती रही मैंने तेरी ज़िन्दगी तबाह कर दी
नई नई मशीनें हैं अब मेरे पास मैं कुछ भी कर सकता हूँ
मिट्टी डाल कर मैंने चो नाले सब जगहें भर दी
 
कुदरत इंसान को देख कर मंद मंद मुस्कुराई
बोली मूर्ख तुझे कई बार तेरी औकात दिखाई
तू है कि तरक्की के नाम पर कर रहा मुझ से खिलवाड़
सुधर जा मत पर्यावरण बिगाड़ वरना तय है तेरी विदाई
 
जोशी मठ क्यों भूल रहा पहाड़ों में कितनी पड़ गई दरारें
जिनके घर उजड़ गए वह अब सर्द रातें कहाँ गुजारें
तेरे कर्मों का फल है यह सजा तो तुझे भुगतनी ही पड़ेगी
जितना मर्जी चिल्लाओ जितना मर्जी भगवान को पुकारें
 
तूने ही धरती को नंगा कर दिया पेड़ पौधे दिए उखाड़
बड़े बड़े डैम बना दिये खोद कर रख दिए सारे पहाड़
तरक्की के नाम पर छोटी छोटी बस्तियां दी उजाड़
बना कर रखा था मैंने जो संतुलन तूने दिया बिगाड़
 
भुगतना तो पड़ेगा तुझे तेरा अहंकार तुझे डुबायेगा
मेरे सामने क्या टिकेगा तू जड़ से उखड़ जाएगा
कुछ नहीं बचेगा मेरे प्रकोप से सब खत्म हो जाएगा
अब भी वक्त है संभल जा फिर वक्त नहीं मिल पायेगा
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