संवाद का अभाव और जंगल - समान वातावरण :- संवाद होता है समान धरातल पर , सम - भाव और समान विचारधारा होने पर , या फिर कहने - सुनने की मोहलत होने पर , विश्वास और समाधान की आशा होने पर , पर खो जाता है संवाद प्रश्नों के जंजाल में , कौतूहल , दुविधा , अविश्वास , आशंका , भय या फिर मत - वै भिन्न य में , प्रश्नों के कई - कई दौर , मेरे उत्तर यू प्रतीत होते हैं , कि जैसे कोई दूसरी भाषा में संवाद हो , बातें मुझे भी लगता है , कि किसी और भाषा में हैं , फुसफुसाहट भरी आवाज , शब्दों के उतार-चढ़ाव और भाव भंगिमा ए , समझ नहीं आ पाती हैं मुझे , इन सबके बीच कई कटीली झाड़ियां और जंगल से पैदा हो जाते हैं , हो जाता हूं मैं मौन , फिर जन्म ले लेती है आशंकाएं हमारे मध्य , प्रतीत होता है कि अदृश्य हिमालय आकर खड़ा हो गया है , और वार्तालाप तितर-बितर हो जाता है ।। यह सिलसिला चला आ रहा है कई बरसों से , जब से झंझा वातो में घिरा हूं , अबूझ पहेलियो और रहस्यमय शब्द जालो , व्यवहारों और विचित्र से प्रस्तावों के मध्य ठिठका खड़ा हूं , अपना देश ,अपनी भाषा और अपने लोग , पर अजनबी व्यवहार , विचित्र से प्रस्तावों , और शंकाओं के मध्य , लगता है जंगल बड़ा है , यह अंतराल सोच और अविश्वास का है , विचारो की भिन्नता और असद भाव का है , वरना ऐसा कोई प्रश्न नहीं है , जिसका उत्तर न हो , समस्या नहीं कोई , बस यह एक आशंका है जिनसे हम घिरे हैं, जिंदगी बीत रही तन्हा - तन्हा , जबकि ,मानव तन और मन मिला है , सारी भावनाएं और विचार हैं , बाकी सब खुराफात हैं , जिनका न आदि है और न अंत , अंत के पहले मिल जाएं , हल कर जाएं , उन सारे प्रश्नों को , जिनसे रुका सारा सिलसिला है ।।। + अमिताभ शुक्ल + + दिनांक - २४ दिसंबर २० +