मानव मन भी कितना अजीब है ना !! सदैव दूसरों में गलती को ढूंढ ही लेता है। चाहे वह बात गलती की श्रेणी में आए अथवा नहीं । जी हां, आज का विषय बहुत दिलचस्प और उत्सुकता भरने वाला है। क्या सचमुच हम हर बात को दूसरे का दोष नासमझी बताकर दोषारोपण कर सकते हैं ? या हममें भी कुछ कमी होती है ?
बहुत आसान सी बात है या यूं कहिए खेल है। एक उदाहरण देकर समझाना चाहूंगी- हम सभी ने संगीत आधारित कुर्सियों का खेल खेला है। कुर्सियां हथियाने के लिए धक्का-मुक्की कुछ भी करके कुर्सी पा जाते हैं और दूसरे व्यक्ति को खेल के बाहर का रास्ता दिखा देते हैं और उसकी गलती भी उसे बता देते हैं कि उसका ध्यान ही नहीं था इसलिए वह कुर्सी नहीं पा सका। देखिए प्रतिस्पर्धा को खेल तक ही सीमित रखें किसी के व्यवहार पर थोपने की कोशिश कतई न करें। खेल है कोई जीतेगा तै कोई हारेगा भी।
ठीक उसी प्रकार होता है। ब्लेम गेम या दोषारोपण का खेल। हम सदैव हर बात हर गलती या फिर किसी कार्य के बिगड़ जाने पर सदैव एक ही पल में जाने बिना कुछ भी बस मौका मिलते ही दूसरों पर दोष लगा देते हैं। चाहे गलती के हकदार हम क्यों खुद ही क्यों ना हो ?
हमेशा अपनी असफलताओं के लिए प्रतिकूल परिस्थितियों या कठिन समय एवं परिस्थिति को दोष देना कहां तक उचित है ? कभी-कभी आप भी दोषी हो सकते हैं। पहले इस बात को भली-भांति समझने का प्रयास करें। दोषारोपण अति आसान कार्य है, परंतु स्वयं के दोषों को खुद में तलाशना कठिन एवं जटिल कार्य प्रतीत होता है । एक छात्र जो किसी भी परीक्षा के लिए स्वयं में ही तैयार नहीं है, परंतु यदि परीक्षा बिगड़ जाती है,। नतीजा खराब आता है तब सारा दोष अध्यापक का होता है जिसने कभी उन्हें ठीक से पढ़ाया ही नहीं, कुछ समझाया ही नहीं,कुछ बताया ही नहीं। वस्तुस्थिति सदैव यही कहती है। परंतु दिल और दिमाग पर जोर देकर कहिए कि सारा दोष केवल अध्यापक का ही है। आप उस गलती के परीक्षा परिणाम के उत्तरदाई स्वयं नहीं ? जिसने उस परीक्षा के लिए ठीक से खुद को तैयार कभी किया ही नहीं।
जोसेफ कैपबेल ने क्या खूब कहा है - "आपका जीवन आप के अपने किए का फल है। आपको दोष देने के लिए कोई और नहीं बल्कि आप हैं।"
बरसों पहले एक बड़ी रेल दुर्घटना हुई, जिसमें कई जिंदगियों को जान से हाथ धोना पड़ा। उन दिनों रेल मंत्री हुआ करते थे। हमारे श्री लाल बहादुर शास्त्री जी। उन्होंने इस घटना के तुरंत बाद इस्तीफा देकर महान और अनूठा उदाहरण स्थापित किया ।क्योंकि उन्होंने किसी और के सिर पर दोष नहीं मढ़ा बल्कि स्वयं को वस्तुस्थिति का जिम्मेदार ठहराया।
इसलिए दूसरों की परिस्थितियों को समझने का प्रयास करें। यदि आप उस स्थान पर होते तो आपके द्वारा क्या निर्णय लिया जाता ? क्योंकि समस्या का हल दोष निकालने या मढ़ने में नहीं बल्कि गहराई के साथ सोचने में है कि क्या कारण रहे होंगे जिसने उस कार्य को विफल किया होगा। निवारण ढूंढने का प्रयास करें । क्योंकि छिटाकसी करने से हल को बल नहीं मिलता बल्कि विफलता और निराशा ही हाथ लगती हैं।
"साथ दें हाथ ना खींचे " सामने वाले को भी समझने का अवसर प्रदान करें कि वह कौन सी त्रुटि उसके द्वारा हो गई जिसने किसी कार्य को विफलता की ओर धकेल दिया। स्वस्थ सोच का निर्माण आप स्वयं भी करें। स्वयं में भी गलती ढूंढने का साहसिक प्रयास करें, कार्य करें कि कहीं आप स्वयं ही स्थिति के लिए जिम्मेदार तो नहीं ?
दोषारोपण का यह खेल चाहे पारिवारिक जिंदगी में हो या राजनीति में, प्रतियोगिता में, खेलकूद में ही क्यों ना हो यह दोष पूर्ण नीति प्रतिस्पर्धा नियति का विनाश कर देती है एवं स्वस्थ गतिशील, पारिवारिक मैत्री और सामाजिक संबंधों को बनाए रखने में भी बाधा उत्पन्न करती है। जिसके कारण कीमती समय, संसाधन, ऊर्जा सब बर्बाद होता है। अतः दोषारोपण को त्याग कर तेजी से विकास और आगे बढ़ने की आवश्यकता को प्राथमिकता दें । जो हमारे स्वास्थ्य मानसिक स्तर का निर्माण कर विचार निर्माण और एक विकास पूर्ण देश का निर्माण कर सकें।
"सोच को परिपक्व करें ना कि दोष मढ़ अपने स्तर से गिरे।"
शीतल शैलेन्द्र"देवयानी"
इन्दौर