मैथिलीशरण गुप्त एक ऐसा व्यक्तित्व है जिनके बिना हिंदी साहित्य यात्रा को पूर्ण समझ पाना शायद सरल ना होगा। वे स्वयं शब्दों के सोर मंडल के चमकते सूरज थे। हिंदी साहित्य भाषा के गगन मंडल के तारे भी थे जिनके बिना राष्ट्रभाषा हिंदी का नभ मंडल शायद तारा विहिन सा लगता है। वह शब्द रूपी तारों के समान राष्ट्रभाषा हिंदी के आकाश के सितारे थे, जिनके बिना शायद यह शब्द रूपी यात्रा संपूर्ण ही नहीं कही जा सकती है।
मैथिलीशरण गुप्त ने भारत की दास्ता युग में हर भारतीय के दिल में स्वतंत्रता का नया जोश भरा। स्वतंत्रता प्राप्ति की दिशा में लोगों को अपनी रचनाओं द्वारा जागृत किया। स्वयं राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने उन्हें - "राष्ट्रकवि" का गौरव पूर्ण सम्मान प्रदान किया।
जन्म झांसी के चिरगांव कस्बे में हुआ और वह स्थान आज भी हिंदी साहित्य प्रेमियों के लिए एक तीर्थ स्थान के रूप में प्रसिद्ध हो गया है। यहां की भूमि धन्य हुई जिसने भारत मां के सपूत को 3 अगस्त 1886 में जन्म दिया। अपने माता-पिता - रामचरण व कौशल्या जी की तीसरी संतान थे। खेलकूद में अधिक रुचि ने उनके अध्यन को कहीं पीछे धकेल दिया था। इसलिए घर पर ही इन्होंने हिंदी, संस्कृत, अंग्रेजी, बांग्ला आदि का अपने गुरु द्वारा ज्ञान प्राप्त किया। वे कहते हैं - " मैं क्यों पढ़ाई करूंगा।" मेरा जन्म केवल पढ़ाई के लिए नहीं हुआ है। उन्होंने इस बात को आगे चलकर सिद्धि भी किया। वे महावीर प्रसाद द्विवेदी जी के व्यक्तित्व से काफी प्रभावित थे। उन दिनों महावीर प्रसाद द्विवेदी जी रेलवे में कार्यरत थे और सरस्वती पत्रिका में भी संलग्न थे । इच्छा हुई उनसे मिलने की और मैथिलीशरण गुप्त उनसे मिलने पहुंच गए। स्मरणीय रहे - उन दिनों महावीर प्रसाद द्विवेदी सरस्वती पत्रिका में हिंदी की खड़ी बोली को समृद्ध बनाने के लिए आंदोलन चला रहे थे जो कि प्रयागराज से प्रकाशित होती थी। और वह गद्य पद्य की भाषा एक ही करना चाहते थे। उन दिनों सरस्वती पत्रिका में स्थान पाना किसी भी कवि के लिए बहुत ही सौभाग्य की बात और गौरव की बात समझी जाती थी। मैथिलीशरण गुप्त जी ने द्विवेदी जी से सरस्वती में अपनी कविताएं छपवाने का निवेदन किया और कहा वह अपनी कविताएं "रसी केंद्र" नाम से लिख कर सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित करवाना चाहते हैं। द्विवेदी जी ने आश्वासन दिया और कहा यदि रचना प्रकाशन योग्य हुई तो अवश्य प्रकाशित करेंगे अन्यथा नहीं। और कहा परंतु आप तो ब्रज भाषा में लिखते हैं और मैं खड़ी बोली का समर्थक हूं फिर यह कैसे संभव होगा। गुप्त जी द्वारा उत्तर में कहा गया- यदि आप आश्वासन दे प्रकाशित करने का तो मैं खड़ी बोली में ही रचनाएं प्रकाशित करने हेतु भेजूगां । द्विवेदी जी के हां कहा और कहा - उन्हें स्वयं अपने नाम से ही रचनाएं भेजने के लिए , किसी उपनाम से नहीं ।
"गुप्त जी धर्म में विशिष्टाद्वेतवादी,आदर्शवादी विचारों से गांधीवादी और साहित्य में अभिधावादी व्यक्तित्व रखते थे।" कहा जाता है -" उनकी काव्यवृक्ति तो पुरानी थी, परंतु उस पर रंग नया चढ़ा हुआ था।" गुप्तजी ने पौराणिक विषयों को अपनी रचनाओं का आधार बनाया। उनकी हेमंत 1905 में सरस्वती पत्रिका में प्रकाशित हुई । उन्होंने लगभग 40 कृतियां लिखी। गुप्तजी ने 1909 में रंग में भंग और 1911 में भारत भारती आई। भारत भारती उनकी ख्याति का मूल आधार बनी रे। भारत भारती में लिखते हैं-
" मानस भवन में आर्य जन जिसकी उतारें आरती
भगवान ! भारतवर्ष में गूंजे हमारी भारती ।।"
"भारत भारती" और "रंग में भंग" यह मैथिलीशरण गुप्त की प्रारंभिक कविताएं हैं जो जन जन में जोश का संचार करती हैं। "रंग में भंग"में गुप्त जी ने गौरी के खिलाफ खुलकर लिखा-
"आज भी चित्तौड़ का नाम कुछ जादू भरा।
चमक जाती है चंचला सी चित्त में करके त्वचा।"
साकेत जो कि 1931 में आई और पौराणिक इतिहास को उजागर करती हुई रामायण की उर्मिला की दशा को दर्शाती है जो कि 12 सर्गो में है। किसान रचना किसानों की दशा दुर्दशा का चित्रण करती है। यशोधरा 1932 में प्रकाशित हुई जिसमें वह अपने पति की राह में त्यागमूर्ति बनी है। विष्णु प्रिया 1957 में अस्तित्व में आई उसमें विष्णु प्रिया कहती है-
"सहने के लिए बनी है ।
सह तू दुखिया नारी।।"
काफी कम लोग जानते हैं कि गुप्तजी ने 'मधुप' नाम से भी रचना - "मेघनाथ वध" को अनूदित किया । मैथिलीशरण गुप्त काव्य क्षेत्र के " शिरोमणि " कहे जाते हैं। विविध धर्मों, संप्रदायों, वर्ग मत मतांतरो और विभिन्न संस्कृतियों का समन्वय गुप्त जी के काव्य का वैशिष्ट्य हैं। "काबा कर्बला" में कवि के उदार धर्म-दर्शन का प्रस्तुतीकरण होता है। नारियों की दशा को व्यक्त करती उनकी यह पंक्तियां ह्रदय में करुणा का उद्वेक करती हैं-
"अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी ।
आंचल में है दूध और आंखों में पानी ।।"
नर और नारी में गुप्त जी की पूर्ण आस्था है। मैं नारी को भोग मात्र नहीं मानते अपितु पुरुष का पूरक अंग मानते हैं। उनके काव्य में नारी अपने स्व अधिकारों के प्रति सजग, शीलवान समाज सेविका, मेधावी, साहसवती, त्याग की प्रतिमूर्ति व तपस्वी बन कर कर उपस्थित हुई है अबला बन कर नहीं।
वहीं नारियों के प्रति पुरुष वर्ग का अत्याचार व अमानवीय आचरण उन्हें स्वीकार नहीं था। द्वापर 1936 में आई इस में विधृता के माध्यम से मैथिलीशरण गुप्त कहते हैं-
" नर के बाटे क्या नारी की नग्न मूर्ति ही आई ।
मां बेटी या बहन हाय क्या संग नहीं लाई।।"
राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त 1952 में राज्यसभा के मनोनीत सदस्य हुए 1954 में पद्मभूषण एवं साकेत 1931 पर मंग्ला प्रसाद पारितोषिक से सम्मानित,साहित्य वाचस्पति, हिंदुस्तानी अकादमी पुरस्कार से सम्मानित गुप्त जी का साहित्य जगत में महत्वपूर्ण स्थान और योगदान है।
1964 में साहित्य का यह सूरज अस्त हो गया। आज गुप्त जी की जयंती पर उन्हें शत शत नमन और वंदन।
शीतल शैलेन्द्र "देवयानी" इन्दौर