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.बढ़ती आर्थिक - असमानताएं और आम - आदमी की पीड़ा

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December 10, 2020 03:27 PM

 बढ़ती आर्थिक - असमानताएं और आम - आदमी की पीड़ा

 ..................डॉक्टर अमिताभ शुक्ल + वैश्विक त्रासदी और भयंकर आर्थिक कठिनाइयों के बीच कॉरपोरेट्स घरानों के मुनाफे , धन - धान्य और समृद्धि में वृद्धि हो रही है , लेकिन , क्या देश के आम और करोड़ों गरीबों के जीवन में उल्लास और समृद्धि का प्रवेश होने की कोई संभावना है ? वास्तविकता से कोसो दूर है यह स्थिति . + गरीबी,भुखमरी और आर्थिक असमानताओं में वृद्धि :- निस्पक्च वैश्विक संस्थाओं के आंकड़े और रिपोर्ट बताते हैं कि भारत में गरीबी कम होना तो दूर बड़ी ही है . अमीर और अमीर हुआ है और गरीब पेट की आग बुझाने से भी महरूम है. भूख के सूचकांक पर देश विश्व के सबसे नीचे के 15 देशों में आता है. ........................ ...भारतीय संविधान की सबसे बड़ी विशेषता " अवसरों की समानता " को माना जाता है, लेकिन यह केवल संविधान तक सीमित है ,और वास्तविकता इस के ठीक विपरीत है । सन 2000 में देश के 1% ऊपरी वाले के पास देश की 37% पूंजी थी जो वर्ष 2005 में बढ़कर 43% वर्ष 2000 में 48% 2014 में 58% और अब 62% हो गई है. इसका मतलब है कि 99% लोग समान अवसर मिलने के बावजूद लगातार पर पिछड़ते जा रहे हैं . अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष की रिपोर्ट यह बताती है कि भारत में यह असमानता आगे और बढ़ेगी . + कोरो ना त्रासदी से गरीबी और असमानता में और वृद्धि :- हाल ही के को रोना - संकट के कारण सीधे-सीधे लगभग दो करोड़ जनसंख्या के रोजगार छिन गए हैं. असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले क रोड़ों श्रमिकों के कार्य और मजदूरी पर आघात हुआ जब कई माह तक उनकी आय शून्य रही . जबकि , इस के विपरीत चंद कॉरपोरेट्स के मुनाफे में अकूत वृद्धि हुई है ,जिससे असमानता का अनुपात और अधिक बड़ा है .इन सबके प्रति न कोई विरोध है ,न स्वर और न गतिरोध . क्यो कि , संकट जीवन का भी है ,और इस की जिम्मेदारी भी व्यक्तिगत ही है . जी डी पी में २४ प्रतिशत की नका रत्मकता का अर्थ राष्ट्रीय आय में वृद्धि का २४ प्रतिशत नीचे जाना है ,अर्थात देश वासियों की आय भी -२४ प्रतिशत हो गई . आश्चर्यजनक रूप से और कीमतों पर किसी नियंत्रण के अभाव में अधिकांश उपभोक्ता वस्तुओं और सेवाओं के मूल्य में कीमत वृद्धि अर्थात उपभोक्ताओं की जेब पर प्रहार और उनकी वास्तविक - आय का और कम हो जाना . + राहत - उपायों के परिणाम प्राप्त न होना :-. आप्रवासी श्रमिकों को कोई रोजगार कही प्राप्त हुआ हो , इस की कोई सूचना उपलब्ध नहीं है . अर्थात सर्वाधिक प्रभावित - वर्ग राहत से वंचित रहा और है और उसके लिए वैकल्पिक रोजगार और आय की कोई व्यवस्था तमाम घोषणा ओ और बजट - प्रावधानों के होते हुए भी नहीं हो पाई है . + आम आदमी की स्थिति :- इन हालातो में क्या और कैसी स्थिति हे आम आदमी और गरीबों की ? जब रोजगार और आय नका रा त मक है , तब करोड़ों नागरिकों का जीवन , आय और परिस्थितियां कैसी होगी ? यह आम आदमी और गरीबों के लिए उत्साह - विहीन और निराशाजनक है . + अवसरों की समानता ,रोजगार और आय - वृद्धि की आवश्यकता :- नीतिगत उपायों द्वारा अवसर और रोजगार और आय बड़े बिना करोड़ों नागरिकों के आर्थिक स्तर में कोई सुधार संभव नहीं है ,जबकि ,दूसरी ओर , आधुनिक तकनीकी और सार्वजनिक उद्दुमो के निजीकरण से रोजगार पर अत्यधिक विपरीत प्रभाव उत्पन्न हुए हैं . इन स्थितियों में निकट वर्ती समय आम आदमी और गरीबों के लिए बहुत कठिन और चुनौती पूर्ण होगा , जब कि , रोजगार और आय के ठोस उपाय और प्रभाव नदारत हैं .
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अर्थशास्त्री प्रो. अमिताभ शुक्ल विगत ४ दशकों से शोध , अध्यापन और लेखन में रत हैं. सागर ( वर्तमान में डॉक्टर हरिसिंह गौर केंद्रीय विश्वविद्यालय ) से डॉक्टरेट कर अध्यापन और शोध प्रारंभ कर भारत और विश्व के अनेकों देशों में अर्थशास्त्र और प्रबन्ध के संस्थानों में प्रोफेसर और निर्देशक के रूप में कार्य किया. आर्थिक विषयों पर 7 किताबे और 100 शोध पत्र लिखने के अलावा वैश्विक अर्थव्यवस्था और भारत की अर्थव्यवस्था संबंधी विषयों पर पत्र पत्रिकाओं में लेखन का दीर्घ अनुभव है . " विकास " विषयक विषय पर किए गए शोध कार्य हेतु उन्हें भारत सरकार के " योजना आयोग " द्वारा " कोटिल्य पुरस्कार " से सम्मानित किया जा चुका है. प्रो. शुक्ल ने रीजनल साइंस एसोसिएशन के उपाध्यक्ष और भारतीय अर्थशास्त्र परिषद की कार्यकारिणी परिषद के सदस्य के रूप में भी योगदान दिया है और अनेकों शोध संस्थाओं और सरकार के शोध प्रकल्पों को निर्देशित किया है. विकास की वैकल्पिक अवधारणाओं और गांधी जी के अर्थशास्त्र पर कार्यरत हैं . वर्तमान में शोध और लेखन में रत रहकर इन विषयों पर मौलिक किताबो के लेखन पर कार्यरत हैं .विश्वव्यापी कोरो ना - त्रासदी पर आपका एक काव्य - संग्रह " त्रासदियों का दौर " और एक विश्लेषण पूर्ण किताब " वैश्विक त्रासदी और भारत की अर्थव्यवस्था " प्रकाशित हो रही हैं .

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